सोमवार, 18 जून 2012

न जाने क्यों,,,,,


न जाने क्यों,

जानकर भी, कि
गुजर रहा हूँ,
अनजान राहों में मै!
न जाने क्यों-
खुद से अनजान
बन जाता हूँ,मै
सोचता हूँ कि-
एक अलग
पहचान बनाऊ
इस दुनिया में मै-
मगर,जब जाता हूँ
दुनिया की उस भीड़ में
न जाने क्यों-?
खुद अपनी पहचान.
भूल जाता हूँ मै!


dheerendra,"dheer"

30 टिप्‍पणियां:

  1. भूल जाना भी कभी कभी मुश्किल हो जाता है
    जो भूल पाता है वाकई में बहुत कुछ पा जाता है।

    लाजवाब !!

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  2. असली समस्या अपनी पहचान के भूलने की है। उसका ध्यान रहे,तो भीड़ भी साथ देगी।

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  3. यही तो त्रासदी है हमारे वक्त की बिना आई डी के घूमते हैं हम लोग .बढ़िया प्रस्तुति

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  4. सुंदर भाव ...
    अच्छी रचना ..शुभकामनायें

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  5. दुनिया की उस भीड़ में
    न जाने क्यों-?
    खुद अपनी पहचान.
    भूल जाता हूँ मै!


    भावनाओं का बहुत सुंदर चित्रण ....

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  6. पहचान तो फिर भी बनानी ही होगी... अन्ततोगत्वा...

    कोशिश करते रहें...

    अच्छी प्रस्तुति।

    -हेमन्त

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  7. ....न जाने ये क्या हो गया, की सब कुछ लागे नया-नया.... ......... सुंदर अभिव्यक्ति.

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  8. .......खुद अपनी पहचान भूल जाता हूँ मै....

    वाह ! बहुत खूब ... बधाई..

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  9. फिर भाई साहब भीड़ का अपना कोई चेहरा भी तो नहीं होता .पर हुआ क्या चेहरे का मेरे अपने .

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  10. भावों की सुंदर अभिव्यक्ति ..
    सुंदर रचना ..

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  11. मगर,जब जाता हूँ
    दुनिया की उस भीड़ में
    न जाने क्यों-?
    खुद अपनी पहचान.
    भूल जाता हूँ मै!

    बहुत सुंदर ....!!

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  12. kyonki apni pahchan hamesha bheed se juda honi chahiye....isiliye bheed me khud ki pahchan bhul jate hain .....

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  13. भावमय करते शब्‍दों का संगम ... बेहतरीन प्रस्‍तुति।

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  14. एक अलग पहचान के लिए आदमी अपनी खुद की ही पहचान खो देता है.....!
    सुन्दर प्रेअर्नादायक रचना...!!

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